देवनागरी लिपि

देवनागरी लिपि

देवनागरी लिपि का विकास

» उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति ‘भाषा’ कहलाती है जबकि लिखित वर्ण संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि । भाषा श्रव्य होती है जबकि लिपि दृश्य ।

» भारत की सभी लिपियां ब्राह्मी लिपि से ही निकली हैं।

» ब्राह्मी लिपि का प्रयोग वैदिक आर्यों ने शुरू किया।

» ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना 5वीं सदी BC का है जो कि बौद्धकालीन है।

» गुप्तकाल के आरंभ में ब्राह्मी के दो भेद हो गए उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी । दक्षिणी ब्राह्मी से तमिल लिपि / कलिंग लिपि, तेलुगू-कन्नड़ लिपि, ग्रंथ लिपि (तमिलनाडु), मलयालम लिपि (ग्रंथ लिपि से विकसित) का विकास हुआ ।

» नागरी लिपि का प्रयोग काल 8वीं 9वीं सदी ई० से आरंभ हुआ। 10वीं से 12वीं सदी के बीच इसी प्राचीन नागरी से उत्तरी भारत की अधिकांश आधुनिक लिपियों का विकास हुआ । इसकी दो शाखाएं मिलती हैं पश्चिमी व पूर्वी । पश्चिमी शाखा की सर्वप्रमुख/प्रतिनिधि लिपि देवनागरी लिपि है।

देवनागरी लिपि का हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के रूप में विकास

» देवनागरी लिपि को हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि बनने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। अंग्रेजों की भाषा-नीति फारसी की ओर अधिक झुकी हुई थी इसलिए हिन्दी को भी फारसी लिपि में लिखने का षड्यंत्र किया गया।

» जान गिलक्राइस्ट : हिन्दी भाषा और फारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54) की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जान गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियां थीं दरबारी या फारसी शैली, हिन्दुस्तानी शैली व हिन्दवी शैली। वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था किन्तु उसमें अरबी-फारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फारसी लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।

» विलियम प्राइस : 1823 ई० में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर हिन्दी (नागरी लिपि में लिखित) पर बल दिया। प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषा-संबंधी भ्रांति को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन प्राइस के बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।

» अदालत संबंधी विज्ञप्ति (1837 ई०): वर्ष 1830 ई० में अंग्रेज कंपनी द्वारा अदालतों में फारसी के साथ-साथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। वास्तव में, इस विज्ञप्ति का पालन 1837 ई० में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में बांग्ला भाषा और बांग्ला लिपि प्रचलित हुई, संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश), बिहार व मध्य प्रांत (मध्य प्रदेश) में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ लेकिन लिपि के मामले में नागरी लिपि के स्थान पर उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा। इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी ही, साथ ही मुसलमानों ने भी धार्मिक आधार पर जी-जान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी से ही नहीं शिक्षा से भी निकाल बाहर करने का आंदोलन चालू किया।

» 1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू-मुसलमानों के पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी सुरक्षा समझने लगी। अतः भाषा के क्षेत्र में उनकी नीति भेदपूर्ण हो गई। अंग्रेज विद्वानों के दो दल हो गए। दोनों ओर से पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क-वितर्क प्रस्तुत किए गए। बीम्स साहब उर्दू का और ग्राउस साहब हिन्दी का समर्थन करनेवालों में प्रमुख थे।

» नागरी लिपि और हिन्दी तथा फारसी लिपि और उर्दू का अभिन्न संबंध हो गया था। अतः दोनों से दोनों के पक्ष- विपक्ष में काफी विवाद हुआ।

» राजा शिव प्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ का लिपि संबंधी प्रतिवेदन (1868 ई०) : फारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई० में उनके लिपि संबंधी प्रतिवेदन ‘मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स ऑफ इंडिया’ से आरंभ हुआ ।

» जान शोर : एक अंग्रेज अधिकारी फ्रेडरिक जान शोर ने फारसी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी और न्यायालय में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन किया था।

» बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई० व 1573 ई०) : वर्ष 1870 ई० में बंगाल के गवर्नर ऐशले ने देवनागरी के पक्ष में एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि फारसी- पूरित उर्दू नहीं लिखी जाए बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाए जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी फारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है। वर्ष 1873 ई० में बंगाल सरकार ने यह आदेश जारी किया कि पटना, भागलपुर तथा छोटानागपुर डिविजनों (संभागों) के न्यायालयों व कार्यालयों में सभी विज्ञप्तियाँ तथा घोषणाएं हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि में जारी की जाएँ।

» वर्ष 1881 ई० तक आते-आते उत्तर प्रदेश के पड़ोसी प्रांतों बिहार, मध्य प्रदेश में नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक प्रोत्साहन मिला।

» गौरी दत्तः व्यक्तिगत रूप से मेरठ के पंडित गौरीदत्त की नागरी प्रचार के लिए की गई सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। गौरीदत्त ने 1874 ई. में अपने संपादकत्व में ‘नागरी प्रकाश’ नामक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने और भी कई पत्रिकाओं का संपादन किया-‘देवनागरी गजट’ (1888 ई.), ‘देवनागर’ (1891 ई.), ‘देवनागरी प्रचारक’ (1892 ई.) आदि ।

» भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की और वे इसके प्रतीक और नेता माने जाने लगे। उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न-पत्र का जवाब देते हुए कहा : ‘सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की’ ।

» प्रताप नारायण मिश्र : पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने ‘हिन्दी- हिन्दू-हिन्दुस्तान’ का नारा लगाना शुरू किया।

» 1893 ई० में अंग्रेज सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।

» नागरी प्रचारिणी सभा, काशी (स्थापना 1893 ई०) व मदन मोहन मालवीय : नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना-वर्ष 1893 ई० में नागरी प्रचार एवं हिन्दी भाषा के संवर्द्धन के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने कचहरी में नागरी लिपि का प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित किया। सभा ने ‘नागरी कैरेक्टर’ नामक एक पुस्तक अंग्रेजी में तैयार की, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला गया था।

मालवीय के नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट, गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई०)-

मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका ‘कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेज’ (1897 ई०) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई० में प्रांत के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला और हजारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया । यह मालवीयजी का ही अथक प्रयास था जिसके परिणामस्वरूप अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसीलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।

» इन तमाम प्रयत्नों का शुभ परिणाम यह हुआ कि 18 अप्रैल 1900 ई० को गवर्नर साहब ने फारसी के साथ नागरी को भी अदालतों/कचहरियों में समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह प्रस्ताव हिन्दी के स्वाभिमान के लिए संतोषप्रद नहीं था। इससे हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान नहीं दिया गया था बल्कि हिन्दी के प्रति दया दिखलाई गई थी। केवल हिन्दी भाषी जनता के लिए सुविधा का प्रबंध किया गया था। फिर भी, इसे इतना श्रेय तो है ही कि नागरी को कचहरियों में स्थान दिला सका और वह मजबूत आधार प्रदान किया जिसके बल पर वह 20वीं सदी में राष्ट्रलिपि के रूप में उभरकर सामने आ सकी।

» शारदा चरण मित्र (1848-1917 ई.): कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शारदा चरण मित्र ने अगस्त 1907 ई० में कलकत्ता में ‘एक लिपि विस्तार परिषद्’ नामक संस्था की स्थापना की। मित्र ने इस संस्था की ओर से ‘देवनागर’ (1907 ई.) पत्र प्रकाशित करके भारत की सभी भाषाओं के साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करने का उपक्रम रचा। इस पत्र में भिन्न-भिन्न भाषाओं के लेख देवनागरी लिपि में छपा करते थे। वे अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम प्रचारक थे।

» नेहरू रिपोर्ट (1928 ई.) की भाषा लिपि संबंधी संस्तुति : नेहरू रिपोर्ट की भाषा-लिपि संबंधी संस्तुति में कहा गया: ‘देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी’ । स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के मामले में इस समय तक द्वैध या विवाद की स्थिति बनी हुई थी।

» संविधान सभा में भाषा संबंधी विधेयक पारित (14 सितम्बर, 1949 ई०): जब संविधान सभा ने 14 सितम्बर, 1949 ई. को भाषा संबंधी विधेयक पारित किया तब जाकर लिपि के मामले में विद्यमान द्वैध या विवाद अंतिम रूप से समाप्त हुआ । अनुच्छेद 343 (1) में स्पष्ट घोषणा की गई : ‘संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी’। इस प्रकार, 150 वर्षों (1800-1949 ई.) के लम्बे संघर्ष के बाद देवनागरी लिपि हिन्दी भाषा की एकमात्र और अधिकृत लिपि बन पाई।

देवनागरी लिपि का नामकरण

» देवनागरी लिपि को ‘लोक नागरी’ एवं ‘हिन्दी लिपि’ भी कहा जाता है।

» देवनागरी का नामकरण विवादास्पद है। ज्यादातर विद्वान गुजरात के नागर ब्राह्मणों से इसका संबंध जोड़ते हैं। उनका मानना है कि गुजरात में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहाँ के पण्डित वर्ग अर्थात् नागर ब्राह्मणों के नाम से इसे ‘नागरी’ कहा गया। अपने अस्तित्व में आने के तुरंत बाद इसने देवभाषा संस्कृत को लिपिबद्ध किया इसलिए ‘नागरी’ में ‘देव’ शब्द जुड़ गया और बन गया ‘देवनागरी’ ।

देवनागरी लिपि का स्वरूप

» यह लिपि बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है। जबकि फ़ारसी लिपि (उर्दू, अरबी, फ़ारसी भाषा की लिपि) दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती है।

» यह अक्षरात्मक लिपि (Syllabic script) है जबकि रोमन लिपि (अंग्रेजी भाषा की लिपि) वर्णात्मक लिपि (Alphabetic script) है।

देवनागरी अंक क्या है ?

देवनागरी अंक निम्नलिखित रूप में दिए गए हैं-

देवनागरी अंक
हिन्दीशून्यएकदोतीनचारपाँचछहसातआठनौ
अंग्रेज़ी अंक0123456789

देवनागरी लिपि के गुण

1. एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत
2. एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि व्यक्त
3. जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम
4. मूक वर्ण नहीं
5. जो बोला जाता है वही लिखा जाता है
6. एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं
7. उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता
8. वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप
9. प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृत, हिन्दी, मराठी, नेपाली की एकमात्र लिपि)
10. भारत की अनेक लिपियों के निकट

देवनागरी लिपि के दोष

1. कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकन, मुद्रण में कठिनाई
2. शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए
3. अनावश्यक वर्ण (ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ङ्, ञ्, ष- आज इन्हें कोई शुद्ध उच्चारण के साथ उच्चरित नहीं कर पाता)
4. द्विरूप वर्ण (ञ्प्र अ, ज्ञ, क्ष, त्र, ६ छ, झ, राा ण, श श्र, ल)
5. समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)
6. वर्णों के संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं
7. अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव
8. त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार-बार उठाना पड़ता है
9. वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति
10. इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद

देवनागरी लिपि में किये गये सुधार

1. बाल गंगाधर का ‘तिलक फ़ांट’ (1904-26)
2. सावरकर बंधुओं का ‘अ की बारहखड़ी’
3. श्याम सुन्दर दास का पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग का सुझाव
4. गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग रखने का सुझाव (जैसे, कुल-कल)
5. श्री निवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे s चिह्न लगाने का सुझाव
6. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और उसकी सिफारिशें
7. काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्री निवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)
8. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफारिशें
9. शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि संबंधी प्रकाशन- ‘मानक देवनागरी वर्णमाला’ (1966 ई०), ‘हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण’ (1967 ई०), ‘देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण’ (1983 ई०) आदि ।

हिन्दी भाषा का मानकीकरण

मानक भाषा (Standard Language)

» मानक का अभिप्राय है-आदर्श, श्रेष्ठ अथवा परिनिष्ठित । भाषा का जो रूप उस भाषा के प्रयोक्ताओं के अलावा अन्य भाषा-भाषियों के लिए आदर्श होता है, जिसके माध्यम से वे उस भाषा को सीखते हैं, जिस भाषा-रूप का व्यवहार पत्राचार, शिक्षा, सरकारी काम-काज एवं सामाजिक- सांस्कृतिक आदान-प्रदान में समान स्तर पर होता है, वह उस भाषा का मानक रूप कहलाता है।

» मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह प्रतिनिधि तथा आदर्श भाषा होती है जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, व्यापारिक व वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है।

» मानकीकरण (मानक भाषा के विकास) के तीन सोपान : बोली → भाषा → मानक भाषा

किसी भाषा का बोल-चाल के स्तर से ऊपर उठकर मानक रूप ग्रहण कर लेना उसका मानकीकरण कहलाता है।

प्रथम सोपान : ‘बोली’: पहले स्तर पर भाषा का मूल रूप एक सीमित क्षेत्र में आपसी बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होनेवाली बोली का होता है, जिसे स्थानीय, आंचलिक अथवा क्षेत्रीय बोली कहा जा सकता है। इसका शब्द भंडार सीमित होता है। कोई नियमित व्याकरण नहीं होता। इसे शिक्षा, आधिकारिक कार्य- व्यवहार अथवा साहित्य का माध्यम नहीं बनाया जा सकता।

द्वितीय सोपान : ‘भाषा’: वही बोली कुछ विशेष भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से अपना क्षेत्र विस्तार कर लेती है, उसका लिखित रूप विकसित होने लगता है और इसी कारण वह व्याकरणिक साँचे में ढलने लगती है, उसका पत्राचार, शिक्षा, व्यापार, प्रशासन आदि में प्रयोग होने लगता है, तब वह बोली न रहकर ‘भाषा’ की संज्ञा प्राप्त कर लेती है।

तृतीय सोपान : ‘मानक ‘भाषा’ : यह वह स्तर है जब भाषा के प्रयोग का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जाता है। वह एक आदर्श रूप ग्रहण कर लेती है। उसका परिनिष्ठित रूप होता है। उसकी अपनी शैक्षणिक, वाणिज्यिक, साहित्यिक, शास्त्रीय, तकनीकी एवं कानूनी शब्दावली होती है। इसी स्थिति में पहुँचकर भाषा ‘मानक ‘भाषा’ बन जाती है। उसी को ‘शुद्ध’, ‘उच्च-स्तरीय’, ‘परिमार्जित’ आदि भी कहा जाता है।

» मानक भाषा के तत्व : 1. ऐतिहासिकता 2. स्वायत्तता 3. केन्द्रोन्मुखता 4. बहुसंख्यक प्रयोगशीलता 5. सहजता /बोधगम्यता 6. व्याकरणिक साम्यता 7. सर्वविध एकरूपता।

» मानकीकरण का एक प्रमुख दोष यह है कि मानकीकरण करने से भाषा में स्थिरता आने लगती है जिससे भाषा की गति अवरुद्ध हो जाती है।

हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दिशा में उठाये गए महत्वपूर्ण कदम

1. राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ ने क़ ख़ ग़ज़ फ़ पाँच अरबी-फारसी ध्वनियों के लिए चिह्नों के नीचे नुक्ता लगाने का रिवाज आरंभ किया ।

2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ के जरिये खड़ी बोली को व्यावहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया।

3. अयोध्या प्रसाद खत्री ने प्रचलित हिन्दी को ‘ठेठ हिन्दी’ की संज्ञा दी और ठेठ हिन्दी का प्रचार किया। उन्होंने खड़ी बोली को पद्य की भाषा बनाने के लिए आंदोलन चलाया।

4. हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से द्विवेदी युग (1900-20) सर्वाधिक महत्वपूर्ण युग था। ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली के मानकीकरण का सवाल सक्रिय रूप से और एक आंदोलन के रूप में उठाया। युग निर्माता द्विवेदीजी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के जरिये खड़ी बोली हिन्दी के प्रत्येक अंग को गढ़ने-संवारने का कार्य खुद तो बहुत लगन से किया ही, साथ ही अन्य भाषा-साधकों को भी इस कार्य की ओर प्रवृत किया । द्विवेदीजी की प्रेरणा से कामता प्रसाद गुरू ने ‘हिन्दी व्याकरण’ के नाम से एक वृहद व्याकरण लिखा ।

5. छायावाद युग (1918-36) व छायावादोत्तर युग (1936 के बाद) में हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में कोई आंदोलनात्मक प्रयास तो नहीं हुआ, किन्तु भाषा का मानक रूप अपने-आप स्पष्ट होता चला गया ।

6. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद (1947 के बाद) हिन्दी के मानकीकरण पर नये सिरे से विचार-विमर्श शुरू हुआ क्योंकि संविधान ने इसे राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया जिससे हिन्दी पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ पड़ा। इस दिशा में दो संस्थाओं का विशेष योगदान रहा-इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के माध्यम से ‘भारतीय हिन्दी परिषद्’ का तथा शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का।

भारतीय हिन्दी परिषद् : भाषा के सर्वांगीण मानकीकरण का प्रश्न सबसे पहले 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने ही उठाया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसमें डॉ० हरदेव बाहरी, डॉ० ब्रजेश्वर शर्मा, डॉ० माता प्रसाद गुप्त आदि सदस्य थे । धीरेन्द्र वर्मा ने ‘देवनागरी लिपि चिह्नों में एकरूपता’, हरदेव बाहरी ने ‘वर्ण विन्यास की समस्या,’ ब्रजेश्वर शर्मा ने ‘हिन्दी व्याकरण’ तथा माता प्रसाद गुप्त ने ‘हिन्दी शब्द-भंडार का स्थिरीकरण’ विषय पर अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किए।

केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय : केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने लिपि के मानकीकरण पर अधिक ध्यान दिया और ‘देवनागरी’ लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण’ (1983 ई०) का प्रकाशन किया ।

विश्व हिन्दी सम्मेलन

उद्देश्य : UNO की भाषाओं में हिन्दी को स्थान दिलाना व हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना ।

क्रमतिथिआयोजन स्थल
पहला10-14 जनवरी,1975नागपुर (भारत);अध्यक्ष- शिवसागर राम
गुलाम (मारिशस के तत्कालीन राष्ट्रपति),
उद्घाटन-इंदिरा गांधी
दूसरा28-30 अगस्त, 1976पोर्ट लुई (मारिशस)
तीसरा28-30 अक्टूबर,1983नई दिल्ली (भारत)
चौथा2-4 दिसम्बर,1993पोर्ट लुई (मारिशस)
पांचवां4-8 अप्रैल,1996पोर्ट ऑफ स्पेन (ट्रिनिडाड एवं टोबैगो)
छठा14-18 सितम्बर,1999लंदन (ब्रिटेन)
सातवां5-9 जून,2003पारामारिबो (सूरीनाम)
आठवां13-15 जुलाई,2007न्यूयार्क (अमेरिका)
नवां22-24 सितम्बर,2012जोहान्सबर्ग (दक्षिण)
दसवां10-12 सितम्बर,2015भोपाल (भारत)

यह भी पढ़ें: हिन्दी की उपभाषाएँ एवं बोलिंयाँ

निष्कर्ष:

हम आशा करते हैं कि आपको यह पोस्ट देवनागरी लिपि जरुर अच्छी लगी होगी। देवनागरी लिपि के बारें में काफी अच्छी तरह से सरल भाषा में उदाहरण देकर समझाया गया है। अगर इस पोस्ट से सम्बंधित आपके पास कुछ सुझाव या सवाल हो तो आप हमें कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताये। धन्यवाद!

FAQs

Q1. निम्नलिखित में से कौन सी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है?
Ans. मराठी
Q2. ‘एक मनई के दुइ बेटवे रहिन । ओह मॉ लहुरा अपने बाप से कहिस-दादा धन मॉ जवन हमर बखरा लागत होय तवन हमका दै द ।’ यह अवतरण हिन्दी की किस बोली में है ?
Ans. अवधी
Q3. अधिकतर भारतीय भाषाओं का विकास किस लिपि से हुआ ?
Ans. ब्राह्मी लिपि
Q4. हिंदी भाषा किस लिपि में लिखी जाती है?
Ans. देवनागरी
Q5. वर्तमान हिंदी का प्रचलित रूप है?
Ans. खड़ी बोली



मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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